बालकनी की सलाख़ें

The concept and premise of this poem is heavily inspired by the beautiful poetry recited by Shah Rukh Khan as Veer at the end of the movie ‘Veer Zaara’.

मैं फ़्लैट नम्बर 702,

बालकनी की सलाख़ों से देखती हूँ।

चिड़ियों का बेधड़क चहचहाना।

आसमान का फिर से नीला हो जाना।

भीनी भीनी हवा का मुझे छू कर जाना।

साथ अपने वो बचपन वाली ख़ुश्बू ले आना।

बहार का बेझिझक फूल खिलाना।

बादलों का कभी भी भूले भटके घिर आना।

फिर यूँ ही झटपट बरस के चले जाना।

मैं फ़्लैट नम्बर 702,

बालकनी की सलाख़ों से देखती हूँ।

इंसान का भी क़ैद होने का यह वक़्त आना।

सड़कों का सुनसान हो जाना।

मिल बाँट के घर के सारे काम कर पाना।

सबका साथ में बैठ के खाना खाना।

बंद करके कहीं भी आना जाना।

घर की अहमियत को समझ पाना।

जितना है हर लम्हा करके उसका शुकराना।

मैं फ़्लैट नम्बर 702,

बालकनी की सलाख़ों से देखती हूँ।